Budhha philosophy Pratitayasamutpad, anityavad, chadhikvad, anatamvad बौद्ध दर्शन प्रतीत्यसमुत्पाद- अनित्यवाद- क्षणिकवाद- अनात्मवाद

बुद्ध जी का सामान्य परिचय:

 भारतीय धर्म के इतिहास में बुद्ध धर्म का इतिहास अद्वितीय रहा है इस धर्म का उद्भव छठी शताब्दी ईसा पूर्व महात्मा बुद्ध द्वारा किया गया बुद्ध जी का जन्म 563 ईसा पूर्व शाक्य गणराज्य के लुंबिनी वर्तमान रुद्रदामन वन नेपाल में हुआ । इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था । इनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के प्रधान थे बुद्ध जी की मां का नाम महामाया था जो कोलीय गणराज्य की कन्या थी । बुद्ध जी के जन्म के सातवें दिन ही इनकी माता महामाया का निधन हो गया और इसके बाद इनका पालन-पोषण इनकी मौसी महा प्रजापति गौतमी ने किया । कहा जाता है कि बुद्ध जी के जन्म पर कॉल देवल नामक तपस्वी  और काेंडिय ब्राह्मणों ने साथ मिलकर एक भविष्यवाणी की थी कि आपका बेटा बड़ा होकर चक्रवर्ती शासक बनेगा या फिर एक महान सन्यासी बनेगा । बुद्ध जी ने 29 वर्ष की आयु में अपना गृह त्याग दिया जिसे महाभिनिष्क्रमण कहां गया और बुद्धिजी को बोधगया में निरंजना नदी के निकट पीपल के वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई इसे संबोधी के नाम से जाना जाता है । इसके उपरांत बुद्ध जी ने सारनाथ में जाकर मानवता के उद्धार के लिए प्रथम उपदेश दिया जिसे धर्म चक्र प्रवर्तन की घटना कहा जाता है । बुद्ध जी अपने अंतिम भ्रमण मैं पावापुरी पहुंचे वहां उन्होंने चंद नामक लोहार के यहां भोजन किया और इसके बाद उन्होंने अन्न जल त्याग दिया एवं 80 वर्ष की अवस्था में 483 ईसा पूर्व कुशीनगर में अपना शरीर त्याग दिया तथा इस घटना महापरिनिर्वाण निर्माण कहा जाता है
नोट बुद्ध का जन्म , ज्ञान प्राप्ति और मृत्यु यह सभी घटनाएं पूर्णिमा के दिन हुई थी

चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म के सिद्धांत की आधारशिला उसके चार आर्य सत्य में निहित है

  दुख
  दुख समुदाय
  दुख निरोध
  दुख निरोध गामिनी मार्ग
  दुख संसार में दुख है जन्म मृत्यु ,मिलना, जुलना बिछड़ना, इच्छा करना आदि को दुख माना गया है

  दुख समुदाय यह द्वितीय आर्य सत्य है कि इसमें बताया गया दुख का कोई ना कोई कारण होता है अर्थात दुख का अकारण नहीं है प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम अनुसार सृष्टि का चक्कर कार्य कारण श्रंखला में बंधा हुआ है और इसमें बताया गया है दुख का मूल कारण अविद्या है तथा अविद्या तृष्णा से उत्पन्न होती है जो हमें अत्यंत दुखी करती है

  दुख निरोध तृतीय आर्य सत्य जहां दुख का कारण है वहां उसकी छुटकारा पाने की विधि भी है तथा जिसे दुख निरोध कहा जाता है दुख का छुटकारा ज्ञान की प्राप्ति से किया जा सकता है जिसे निर्वाण कहते हैं ‌।

  दुख निरोध गामिनी मार्ग बुद्ध जी के चौथे आर्य सत्य मैं उन्होंने कहा कि यदि संसार में दुख है तो उसका कारण है तथा उस दुख को कम करने के लिए एक मार्ग है जिसे अष्टांगिक मार्ग कहते हैं 

  बौद्ध दर्शन के आधार

    प्रतीत्यसमुत्पाद
   अनित्यवाद
    क्षणिकवाद 
     अनात्मवाद 

 प्रतीत्यसमुत्पाद

 इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई ना कोई कारण अवश्य होता है अर्थात बुद्ध अपने द्वितीय आर्य सत्य में यह बताते हैं कि संसार में दुख ही दुख है तथा इस दुख का कारण है तथा दुखों के कारणों की व्याख्या कार्य कारण सिद्धांत कोही प्रतीत्यसमुत्पाद कहते हैं ।
बुद्ध दर्शन प्रतीत्यसमुत्पाद केंद्रीय सिद्धांत माना गया है नियम के अनुसार संसार की सभी घटनाएं कारणों पर निर्भर होती हैं । किसी कारण के बिना किसी भी घटना का होना उत्पन्न नहीं होता इसलिए बुद्ध जी ने प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम मैं संसार में व्याप्त दुख के कारणों को ढूंढा और इस दुख से छुटकारा पाने का मार्ग खोजा । उनका यह निष्कर्ष था की दुख की उत्पत्ति का कारण अविद्या है तथा जिसका अर्थ यह हुआ कि दुख को ज्ञान के माध्यम से ही समाप्त किया जा सकता है । 
बुद्ध अपने प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत के अंतर्गत दुख के कारणों की खोज करते हुए उन्होंने 12 कार्य कारणों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की जिसे द्वादश निदान कहते हैं

जरा मरण -अर्थात वृद्धा अवस्था में या जर्जर (यह दुख का कारण है)
जाति-अर्थात जन्म लेना (जरा मरण का कारण जाति है)
भव-जन्म लेने की इच्छा को प्रेरित करना ( भव का कारण जाति है)
 उपादन - संसार से मोह करना (भव का कारण ही उपादान है)
तृष्णा - संसार से मोह होना तृष्णा का कारण है (उपादान का कारण तृष्णा है )
वेदना- इंद्रियों का अनुभव ही वेदना है (वेदना का कारण तृष्णा है )
स्पर्श- इंद्रियों का विषय से सहयोग होना ( स्पर्श का कारण ही वेदना है)
षडायतन- 6 इंद्रियों का जिसमें पांच ज्ञानेंद्रियां प्लस एक मन साथ हो जाते हैं तथा  (षडायतन का कारण स्पर्श है)
नामरूप- मन युक्त भौतिक स्वरूप
विज्ञान- नामरूप का कारण चेतना है
संस्कार- पुनर्जन्म के कारण चेतना उत्पन्न होती है (विज्ञान का कारण संस्कार है)
अविद्या- अर्थात ज्ञान का अभाव (संस्कार का कारण अविद्या है) 

 प्रतीत्यसमुत्पाद- अनित्यवाद- क्षणिकवाद- अनात्मवाद

अनित्य वाद-: अनित्य बाद के अनुसार वस्तुएं नित्य ना होकर अनित्य हैं अर्थात उनका अस्तित्व जब तक होता है जब तक कि कारण होता है कारण के नष्ट हो जाने पर वस्तु नष्ट हो जाती है प्रत्येक कार्य का कोई ना कोई कारण जरूर होता है यह कार्य कारण सिद्धांत से हम समझ सकते हैं यानी कि यह प्रतीत्यसमुत्पाद अनित्य वाद की स्थापना करता है।
क्षणिकवाद:-अनित्य वाद के सिद्धांत से ही क्षणिकवाद अस्तित्व में आता है इस सिद्धांत के अनुसार माना गया है कि वस्तुओं का अस्तित्व कुछ क्षणों के लिए होता है अर्थात सभी वस्तुएं क्षणिक हैं प्रत्येक वस्तु प्रत्येक क्षण परिवर्तन होती रहती है यानी परिवर्तन ही वस्तु की प्रकृति का स्वभाव है यह सिद्धांत बुद्ध जी ने नहीं अपितु बुद्ध जी के दार्शनिक अनुयायियों द्वारा बताया गया है उदाहरण के लिए सूर्य की ज्वाला इसमें हम परिवर्तन को नहीं देख पाते ऐसे ही नदी की धारा, हवा का प्रवाह भी आदि में निरंतर परिवर्तन होता रहता है पर हम इसको देख नहीं पाते
क्षणिकवाद की आलोचना
क्षणिकवाद निर्वाण का खंडन कर देता है
क्षणिकवाद से ज्ञान प्राप्त करना असंभव है
क्षणिकवाद कार्य कारण सिद्धांत की व्याख्या करने में असफल हो जाता है
क्षणिकवाद से कर्म सिद्धांत का खंडन होता है
अर्थात हम देख सकते हैं यह सिद्धांत तर्कसंगत रूप से बुद्ध के विचारों के अनुरूप स्पष्ट नहीं करता यानी प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है तो अगर किसी ने एक समय ज्ञान की प्राप्ति या निर्वाण प्राप्त कर लिया परंतु इस नियम के अनुसार प्रत्येक वस्तु क्षणिक हैं तो वह परिवर्तनशील हो जाती है यानी जिस व्यक्ति ने निर्वाण प्राप्त किया है वह कुछ समय के बाद परिवर्तनशील हो जाएगा। इससे यह स्पष्ट होता है वह कभी भी निर्वाण की प्राप्ति नहीं कर पाएगा इसलिए क्षणिकवाद से निर्वाण असंभव हो जाता है। और यह मूल सिद्धांत की अवहेलना करता है।

अनात्मवाद

इस सिद्धांत के अनुसार संसार की सभी वस्तुएं अनित्य और क्षणिक है। उनका विचार उपनिषदों के विपरीत है उपनिषद में आत्मा को स्थाई बताया गया है जबकि बौद्ध मत स्थाई आत्मा की सत्ता को नहीं मानते और उनका मानना है कि आत्मा शरीर के समान नश्वर है और आत्मा में भी सभी विकार होते हैं जो हमारे शरीर में होते हैं
जिस प्रकार एक कारीगर पहिया और उस के ढांचे से गाड़ी का निर्माण करता है उसी प्रकार हमारे शरीर की आत्मा की रचना पंच स्कंध से मिलकर बनती है जिनमें रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान स्कंध सम्मिलित है


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