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आदर्शवाद 

आदर्शवाद मनुष्य को केवल प्राकृतिक उपादान ना मानकर सृष्टि की सर्वोच्च रचना मानता है। आदर्शवाद के लिए प्राकृतिक वातावरण से अधिक सांस्कृतिक वातावरण का महत्त्व है क्योंकि वह मनुष्य की उपलब्धि है। अपनी सांस्कृतिक निधि का आत्मसात करके व्यक्ति उसे आगे बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त करता है। इस दृष्टि  से शिक्षा की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।

आदर्शवाद का अर्थ

 आदर्शवाद को अंग्रेजी में idealism कहते हैं यह दर्शनशास्त्र का सबसे प्राचीनतम विचारधारा है इस विचारधारा के अनुसार मनुष्यों को सदाचार, विवेक, तर्क, कल्पना, निर्णय आदि मानसिक शक्तियों से युक्त आध्यात्मिक मनुष्य माना जाता है। प्रकृतिवाद मनुष्य को प्राकृतिक प्रवृत्तियां का जीवन मानकर उसकी शिक्षा व्यवस्था चाहता है अतः यह विचारधारा प्रकृतिवाद के बिल्कुल विपरीत है। कुछ लोग इस विचारधारा यह कहकर पुकारते हैं, कि आईडिया का अर्थ विचार है लेकिन फिर भी इस में अंतर है। आदर्शवाद शरीर की अपेक्षा मनुष्य अथवा ईश्वर को महत्व देता है। विचारों में आदर्शवाद सत्य एवं सार्थकता से परिपूर्ण है। आदर्शवाद के अंदर मानसिक तथा आध्यात्मिक स्थिति को ही परम अथवा प्रधान माना जाता है अतः हम इसे आध्यात्मिक वादी भी कह सकते हैं।
आदर्शवाद के अनुसार ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत ब्रह्म जगत नहीं है तथा ज्ञान प्राप्ति इंद्रियों के माध्यम से नहीं होती। जो लोग यह मानते हैं कि इंद्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया जाता है उन्हें इंद्रिय अनुभव वादी कहा जाता है। आदर्शवादी अपने आप को तर्क बुद्धि कहता है। आदर्शवादी के अनुसार किसी वस्तु विशेष के साथ हमारी प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न होती है। किसी वस्तु से संबंधित विचारों में बातें पाई जाती हैं। कौन से है जो सत्य के करीब है इसकी जानकारी के लिए हमें अपनी बुद्धि का उपयोग करना पड़ता है। अतः कहा जा सकता है की इंद्रिय द्वारा प्राप्त ज्ञान अस्थाई और अपूर्ण होता है जबकि तर्क द्वारा सिद्ध किया गया ज्ञान ही, सत्य एवं स्थाई ज्ञान है।
प्लेटो के अनुसार आदर्शवाद
आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास रखता है वह आत्मा को सूक्ष्म व अनादि, अनंत मानते हैं आदर्शवाद इस भौतिक संसार को मिथ्या मानता है
आदर्शवाद मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष पर अधिक बल देता है क्योंकि आदर्श वादियों के लिए आध्यात्मिक मूल्य, मनुष्य के जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं। एक तत्व ज्ञानी आदर्शवादी का विश्वास है कि मनुष्य का सीमित मन असीमित मन से पैदा होता है व्यक्ति और जगत दोनों बुद्धि की अभिव्यक्ति हैं जिसमें भौतिक जगत की व्याख्या मन से ही की जा सकती है।


आदर्शवाद का आधुनिक शिक्षा पर प्रभाव

आदर्शवादी विचारधारा बहुत ही प्राचीन है जिसमें विभिन्न तत्वों का वर्णन किया गया और हम यह मान सकते हैं। कि आदर्शवाद सभ्यता के अधिकार से प्रेरणा का स्रोत बना रहा है। आदर्शवाद का आधुनिक शिक्षा पर बहुत अधिक प्रभाव देखने को मिलता है आदर्शवाद मनुष्य को शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण में हमारी बहुत सहायता करता है। सत्यम शिवम सुंदरम तथा आत्म अनुभूति के उद्देश्य से आदर्शवाद में विवेचना की गई है जो आज भी बड़े तौर पर आकर्षक का मूल कारण है। पाठ्यक्रम के निर्माण में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि मानवता के लिए मूल्यवान तत्वों का अध्ययन प्रत्येक विद्यार्थियों को अनिवार्य है और बालकों को साहित्यिक तथा सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन करके ज्ञान की अनुभूति प्राप्त होती है। आदर्शवाद में नैतिक शिक्षा की आवश्यकता पर अधिक बल दिया है। इसका प्रभाव आज संसार के प्रत्येक देश की शिक्षा पर दिखाई पड़ता है आदर्शवाद ने शिक्षक के व्यक्तित्व को बड़ा ही महत्व दिया है। और विद्यार्थियों को सामने रखकर प्रभावित करता है। आदर्शवाद के इस तत्व को आज स्पष्ट प्रभाव दिखलाई पड़ता है जिसमें शिक्षण प्रशिक्षण में अध्यापकों के व्यक्तित्व की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। जिसमें आगे चलकर छोटे बालकों पर अनुकूल प्रभाव पड़ सकें। विद्यार्थियों को अध्यापकों के निकट संपर्क आने से ज्ञान के आदान-प्रदान में आसानी होती है। इसलिए सरकार यह प्रयास कर रही है कि अध्यापक और विद्यार्थी के अनुपात को घटाया जाए।

भारतीय शिक्षा में आदर्शवाद

भारत में आदर्शवाद के रूप अध्यात्म वाद पर रहा है। प्राचीन और भारतीय शिक्षा में स्पष्ट रूप से इसके लक्षण दिखाई पड़ते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि भारत में सच्चा आदर्शवाद स्वीकार किया गया था भारत में शिक्षा के आदर्शवादी स्वरूप के लक्षण आदिकाल से ही दिखाई पड़ते हैं। प्राचीन काल में शिक्षा का उद्देश्य ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति रहा है। वैदिक युग में आचार्य विद्यार्थी को आत्मानुभूति प्राप्ति के लिए प्रेरणा दिया करते थे। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु वह त्याग, साधना एवं तप जैसी शिक्षण विधियों का पालन करते थे। विद्यार्थी अनुशासन और आत्म संयम के अनुसार अपनी दिनचर्या का पालन करता था।
प्राचीन भारत की इस परंपरा का प्रभाव हम मध्ययुगीन भारतीय शिक्षा में भी पाते हैं मध्यकाल के हिंदू विद्या केंद्र से इसके प्रमाण प्राप्त होते हैं। आज देश में प्रचलित संस्कृत पाठशाला में बहुत हद तक उक्त परंपरा को मानते हैं आज के हमारे स्कूलों और कॉलेजों में अनेक विचारधाराओं का प्रभाव होता है तथा उनमें भी आदर्शवाद के प्रति सम्मान और आदर का भाव देखा जा सकता है। आज भी भारतीय शिक्षा को आदर्शवाद की मूल तत्वों द्वारा अनु प्रमाणित करने की बड़ी आवश्यकता है क्योंकि हम देख रहे हैं कि प्रत्येक विद्या केंद्र अराजकता और अनैतिक तत्वों से ग्रसित हो रही है। और हमारा ध्यान आज भौतिक मूल्यों की ओर अधिक है गुरु और शिष्य का संबंध मैं पतन हो रहा है। अध्यापक और विद्यार्थियों में व्यवसायिक प्रवृत्तियों का जोर है वेतन बनना चाहिए, सुविधाएं बननी चाहिए, शुल्क घटना चाहिए, बिना परीक्षा के परीक्षा पास कर देनी चाहिए, इस तरह की विचारधारा आज हमें दिखलाई पड़ती है। इन पर नियंत्रण प्राप्त करने हेतु हमें आदर्शवाद विचारधारा के अनुरूप कार्य करना चाहिए। इसका कारण यह है कि कुछ ना कुछ अभाव तो हर समय रहेगा परंतु इस भावनाओं के प्रति हमारी अनुकूल मानसिक स्थिति को ही आदर्शवाद के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।


पश्चात विचारधारा के अनुसार आदर्शवाद के रूप

आदर्शवाद के अनेक रूप में विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं यहां आदर्शवाद के कुछ मुख्य रूपों का अध्ययन करेंगे

नैतिक आदर्शवाद 

 प्लेटो इसका महान समर्थक था उसके अनुसार नैतिक विचार सबसे महत्वपूर्ण है सत्यम शिवम सुंदरम की प्राप्ति ही मनुष्य का लक्ष्य है

निरपेक्ष आदर्शवाद 

 हीगल, फिकटेआदि महान दार्शनिकों ने इस विचारधारा का प्रतिपादन किया। इसमें दो मूल तत्व मन व पदार्थ है मन का चरम रूप ईश्वर व विचार है

आत्म निष्ठ आदर्शवाद 

 इसका प्रतिपादक एक आयरिश था जिसका नाम ब्रफेले था आदर्शवादी के इस रूप के अनुसार पदार्थ का अस्तित्व मन के कारण है और इसका पृथक कोई अस्तित्व नहीं है।

प्रपंच वाद 

 कांट इस विचारधारा का समर्थक था उसने कहा था कि यह जगत प्रपंच मात्र है वास्तविक जगत अनुभव कर्तव्य नैतिक मूल्यों से युक्त है।

अनेकवाद 

 इसका प्रमुख समर्थक लाइबेनीज यह कहता है कि प्रत्येक पदार्थ में चेतन बिंदु होता है जो एक आध्यात्मिक तत्व है जो अपनी स्वतंत्र सत्ता को रखता है।

भारतीय आदर्शवादी विचारधारा के अनुसार आदर्शवादी के रूप
अद्वैतवाद 

 इस के प्रतिपादक स्वामी शंकराचार्य थे जिनके अनुसार ब्रह्म ही मूल तत्व है जो इस संसार का सृष्टि करता है और भौतिक संसार मात्र एक मायाजाल है।

द्वैतवाद 

 इसके समर्थक स्वामी माधवाचार्य थे जो यह मानते थे कि 2 मूल तत्वों की सत्ता है यह दो मूल तत्व ब्रह्म और आत्मा है।

अनेक वाद 

 इस विचारधारा में 2 से अधिक मूल तत्वों की सत्ता को स्वीकारा है ब्रह्म, जीव व प्रकृति यह तीन मूल तत्व हैं

आदर्शवाद के आधारभूत सिद्धांत

भौतिक जगत की अपेक्षा आध्यात्मिक जगत महत्वपूर्ण-:-जगत को सत्य और स्थिर मानते हैं और अनुसार आध्यात्मिकता ही वास्तविकता है। वह भौतिक जगत को नश्वर कहते हैं यानी भौतिक जगत में सभी तत्व नष्ट हो जाते हैं।
वस्तु की अपेक्षा विचार महत्वपूर्ण :- आदर्शवादी  वस्तु की अपेक्षा विचार को अधिक सत्य और वास्तविक मानते हैं मनुष्य के दिमाग में विचारों की उत्पत्ति पहले होती है और वस्तु का ख्याल बाद में आता है इसलिए वस्तु की अपेक्षा विचार महत्वपूर्ण है
आध्यात्मिक मूल्यों का महत्व :- यह आध्यात्मिक मूल्य है सत्यम शिवम सुंदरम आदर्श वादियों के अनुसार इन मूल्यों को जानना ही मानव का जीवन लक्ष्य है।मनुष्य को इनकी प्राप्ति बिना स्वार्थ के करनी चाहिए। इनको प्राप्त करके ही मनुष्य ईश्वर के दर्शन प्राप्त कर सकता है।
आध्यात्मिक शक्ति से ही ब्रह्मांड :-आदर्शवाद के अनुसार इस संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना किसी आध्यात्मिक शक्ति द्वारा हुई है एक शक्ति का ना कोई आधी है और ना कोई अंत है
आत्मा और परमात्मा:- आदर्श वादियों का कहना है कि यह इतने सूक्ष्म है कि इनको इंद्रियों द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता। उनकी अनुभूति मन और बुद्धि के द्वारा ही संभव है।
अनेकता में एकता:- आदर्शवादी अनेकता में एकता मैं ही विश्वास करते हैं उनके अनुसार विश्व की अनेक वस्तुओं को एक शक्ति और एकता के सूत्र में बांधते हैं एवं यह शक्ति ईश्वर है जो सर्व शक्तिमान और सर्वगुण संपन्न है।

आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

आत्मा अनुभूति :- शिक्षा में आत्मानुभूति से आशय है आत्मबोध से स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त करना। एक ज्ञानी ने कहा है कि शिक्षा के उद्देश्य में आत्म अनुभूति महत्वपूर्ण है सुकरात का भी यही कहना था कि अपने आप को पहचानो तभी आप ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति :- आदर्श वादियों के अनुसार आध्यात्मिक मूल्य शिक्षा है। तथा शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बालकों को उन आध्यात्मिक मूल्यों की अनुभूति कराना चाहिए, जिनसे उनका विकास संभव हो।सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान और विकास किसी भी समाज के लिए उसकी धरोहर होती है। यह मानव के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देती है। सभ्यता और संस्कृति का आधार बनाकर ही व्यक्ति आगे बढ़ता है। विकास मनुष्य का पहला कर्तव्य है।
बालक के व्यक्तित्व की प्रगति :- आदर्शवादी मानते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को इस योग्य बनाता है कि वे संपूर्ण जीवन को अच्छे से व्यतीत कर सकें इस संबंध में प्लेटो का भी यही कथन है कि व्यक्तित्व की प्रगति ज्ञान की ओर मार्ग प्रशस्त करती है।
सभ्यता और संस्कृति का विकास :- आदर्श वादियों का मानना है कि व्यक्ति जिस समाज का सदस्य उसे समाज की संस्कृति व सभ्यता का ज्ञान होना अनिवार्य होता है। इस संबंध में रस्क ने लिखा है की सांस्कृतिक वातावरण मानव का स्वरचित वातावरण है जिसकी रक्षा व विकास करना उस का उद्देश होना चाहिए।
जड़ प्रकृति की अपेक्षा मनुष्य का महत्व :- आदर्श वादियों का मानना है कि ईश्वर से मनुष्य का स्थान कुछ ही कम है। और मानते हैं कि मनुष्य इतना सक्षम होता है कि वह आध्यात्मिक जगत का अनुभव कर सकें और अधिक महत्वपूर्ण प्राणी बन सके। वह यह भी मानते हैं कि मनुष्य बुद्धि जीवी और विवेकपूर्ण प्राणी है। बुद्धि ही मनुष्य के विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों का आकार बनाती है जिससे वह अपने गुणों का विकास करता है।

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